Wednesday, June 16, 2010

नए सपने


अब स्वप्न भी नहीं आते


नीले समुंदर में मछलियों की तरह


अठखेलियॉं करने के


या पक्षियों की तरह पंख फैलाकर


दूर गगन में उन्मुक्त उड़ान भरने के


और या रंग-बिरंगे परिधानों में सजी


परियों के साथ चॉंद पर विचरण करने के।


अब स्वप्न आते हैं भी तो बस


दो जून की रोटी के


मुन्ने की फीस और पत्नी की फटी धोती के


दहेज़ के अभाव में अनब्याही


मुनिया की ढलती उम्र


स्वप्न में भी जगाए रखती है


पूरी रात


नहीं होती अब स्वप्न में भी


कोई दिल बहलाने वाली बात।


बदरंग फाइलों की ढ़ेर


और कड़ी मेहनत के बावजू़द


बॉस की बेवजह गुर्राई ऑंखें


स्वप्न तक पहुच जाती हैं


इस प्रकार दिन भर की थकान


वहॉं भी नहीं उतर पाती है


खेल नहीं पाते हम वहॉं भी


सुख-सुविधाओं की कोई पारी


पीछा नहीं छोड़ती स्वप्न में भी


भूख, ग़रीबी, बेबसी और लाचारी

1 comment: