
दो वर्ष पहले पिताजी के गुजर जाने के बाद माँ अपने जीवन में बहुत कुछ शांत रहने लगी थीं। जीवन भर हम बच्चों और कुछ नाते-रिश्तेदारों आदि की बेहतरी में लगे पिताजी न कभी हमारी माँ के लिए कुछ खास कर पाए थे और न ही अपने लिए एक घर बना पाए थे। अपने अंतिम समय में पिताजी दिमागी रूप से कुछ अस्वस्थ भी हो चले थे अतः मॉं की निगरानी में ही उनका एक-एक दिन गुजरता था। पिता जी भी अपने होशो-हवाश में मॉं का पूरा ध्यान रखते थे। जब कोई उनकी ज़्यादा सेवा करता तो वह उसे डांटने के अंदाज़ में कहते, ‘मेरा नहीं उनका (माँ) का ध्यान रखो, वो हैं तो सब कुछ है।’ शायद यह निस्वार्थ प्रेम और समर्पण ही था जिसने पिताजी के जाने के बाद माँ को एकदम से तोड़ कर रख दिया था। बहू-बेटे और पोते-पोतियों आदि की भीड़ के बावजूद माँ अपने आपको काफी अकेला महसूस करने लगी थीं। ऐसा उन्होंने एक दिन बातों ही बातों में मुझसे कहा भी था। हम नहीं समझ पाये थे कि भरे पूरे परिवार के बावजूद मात्र एक पति, जो जीवन के अंतिम समय में अपनी मानसिक स्थिति के चलते माँ का पूरी तरह से साथ भी नहीं दे पाते थे और उनके कभी-कभी के व्यवहार व स्वास्थ्य कारणों से अक्सर घर में कुछ परेशानी भी खड़ी हो जाती थी, के न रहने मात्र से माँ को इतना अकेलापन क्यों महसूस होता है। शायद हमारे और उनकी पीढ़ी के बीच के स्त्री-पुरुष सबंधों को समझ पाने का यही फर्क था। हमारी आज की पीढ़ी ने जिन संबंधों को समझौते का रूप देकर एक दूसरे की आवश्यकता पूर्ति का साधन मात्र समझ लिया है और उसे पूरी तरह से व्यवसायिक सांचे में ढाल दिया है, वह भला माँ की पीढ़ी के स्त्री-पुरुष संबंधों को कैसे समझ सकती है। पिताजी के गुजर जाने के बाद माँ की खाने-पीने की चीज़ों से भी अरुचि सी हो गई थी और वह अपना सामान्य भोजन भी ठीक से नहीं लेती थीं। इसी बीच उन पर शुगर, ब्लडप्रेशर आदि जैसी बीमारियों का शिकंजा भी कसता चला गया। इन सबके बावजू़द वह अपनी सेहत के प्रति कभी सचेत नहीं हुईं। और अंततः पिताजी के न रहने के ग़म को अपने सीने में दबाए हुए 28 सितंबर,2009 को ठीक दशहरे वाले दिन हम सबको छोड़कर किसी नई दुनियॉ की ओर कूंच कर गईं। माँ के गुजर जाने के बाद जब हम उनकी डायरी के पन्ने पलट रहे थे तो उसमें उनकी लिखी यह पंक्तियां हमें नजर आई जो उन्होंने बाबूजी के निधन के पश्चात लिखी थी। इससे उनकी बाबूजी के प्रति प्रेम और समर्पण आदि की एक झलक मिलती है-
‘कहां चले गये आप, अपना घर परिवार सब छोड़ के कहां विलीन हो गये, हम सबको रोते बिलखते छोड़ के।
सात जनमों की कसम खाकर, हमको अपने घर लाये थे।
कितने लगन और निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाए थे।
क्या भूल हो गयी हम सबसे, जो चले गये रिश्ता तोड़ के।
कहां विलीन हो गये, हम सबको रोते बिलखते छोड़ के।
अगर भूल हो गयी हो हम सबसे, तो उसे क्षमा कर देना।
झुका रहेगा सर चरणों में उसे स्वीकार कर लेना।
सपनों में नहीं दर्शन देते, ऐसे गये मुंह मोड़ के
कहां विलीन हो गये, हम सबको ..........’
माँ ने बेटी-बेटे का भेद किए बगैर हम छह भाई-बहनों को एक समान रूप से पाला-पोसा था। ट्रांस्फरेबुल नौकरी के चलते पिताजी के अक्सर घर से दूर होने की स्थिति में भी माँ ने कभी साहस नहीं खोया और न ही हमारी पढ़ाई या लालन-पालन में कभी कोई कसर रखी। अपने सुख-दुख की परवाह न करते हुए सबके सुख-दुख में बराबर का शरीक होना और सबकी मदद करते रहना उनकी फितरत में शामिल था। वह सुख के क्षणों में या किन्हीं परेशानियों के चलते किसी भी बच्चे के बुलावे पर पैसे-रुपए व घर-द्वार की परवाह किए बगैर और रुग्ण शरीर के बावजू़द तुरंत उसके पास आ जातीं और महीनों साथ रहतीं। परन्तु अपनी नौकरी और घर-परिवार की समस्याओं में व्यस्त रहने के कारण हम उनके अंदर पल रही बीमारी, उनके एकाकीपन और उनकी आवश्यकताओं को शायद ज़्यादा करीब से नहीं महसूस कर पाए थे।
जब मैं दिल्ली में नौकरी के चलते और अविवाहित होने के कारण अकेला एक किराए के मकान में रहता था। मेरी बीमारी की खबर सुनकर माँ तुरन्त मुझे देखने चली आई थी। वह लगभग महीने भर मेरे पास रही थीं। उन दिनों बीमारी व किन्हीं अन्य कारणों से मेरे पास पैसों की समस्या हो गई थी। माँ के जाते-जाते मेरी जेब पूरी तरह से खाली हो चुकी थी। और मुझे यह चिंता सताए जा रही थी कि तन्ख्वाह मिलने तक यानी अगले 10-12 दिनों तक मेरा खर्च कैसे चलेगा। परदेश में मैं किसी से उधार भी नहीं ले सकता था। उस दिन जब मैं माँ को झाँसी रवाना करने के लिए ट्रेन में बैठाकर घर लौटा और अपने दवा-दारू आदि पर हुए खर्चों का हिसाब अपनी एक डायरी में लिख रहा था। तो अचानक मेरी नज़र उसमें रखे एक लिफाफे पर पड़ी। लिफाफे के अंदर कुछ रुपए रखे थे और एक कागज पर माँ की लिखी ये चंद लाइनें-‘बेटा मेरे आने से व तुम्हारी बीमारी पर बहुत पैसे खर्च हो गए होंगे, इसलिए इन पैसों से अपना काम चला लेना। कसम है बुरा मत मानना और इसे वापस मत करना।’ मैं उस दिन बहुत रोया था।मुझे समझ में नहीं आया था कि माँ ने मेरी आर्थिक स्थित को कैसे भांप लिया था जबकि मैंने इसका उन्हें कभी आभाष नहीं होने दिया था। माँ की लिखी वह चिट्ठी आज भी कभी मैं देखता हूं तो मुझे रोना आ जाता है।
व्यवसायीकरण की अंधी दौड़ में दौड़ते जब हम आज के समाज और उसके नए चाल-चलन को देखते हैं तो लगता है आगे की पीढ़ी को न अब ऐसे माँ-बाप और न उनका ऐसा प्यार नसीब हो सकेगा। एक-दूसरे के प्रति प्यार, समर्पण और त्याग की कहानियॉं हमें इतिहास के पन्नों में ढूंढ़नी पड़ेगी। पति-पत्नी के बीच के एक-दूसरे की आवश्यकताओं और स्वार्थ तक सिमट जाने वाले संबंध कल, परिवार और समाज को किस दिशा में ले जाएंगे यह सोच कर ही आज मन सिहर उठता है।
इस माह की 28 तारीख को माँ की पहली पुण्य तिथि है। सो माँ की याद आ गई और मैंने सोचा उनसे जुड़ी कुछ बातों को आप सबके साथ शेयर करूं। मेरे पास आज माँ नहीं है। वे धन्य हैं जिनके पास माँ है....