Wednesday, June 16, 2010

नए सपने


अब स्वप्न भी नहीं आते


नीले समुंदर में मछलियों की तरह


अठखेलियॉं करने के


या पक्षियों की तरह पंख फैलाकर


दूर गगन में उन्मुक्त उड़ान भरने के


और या रंग-बिरंगे परिधानों में सजी


परियों के साथ चॉंद पर विचरण करने के।


अब स्वप्न आते हैं भी तो बस


दो जून की रोटी के


मुन्ने की फीस और पत्नी की फटी धोती के


दहेज़ के अभाव में अनब्याही


मुनिया की ढलती उम्र


स्वप्न में भी जगाए रखती है


पूरी रात


नहीं होती अब स्वप्न में भी


कोई दिल बहलाने वाली बात।


बदरंग फाइलों की ढ़ेर


और कड़ी मेहनत के बावजू़द


बॉस की बेवजह गुर्राई ऑंखें


स्वप्न तक पहुच जाती हैं


इस प्रकार दिन भर की थकान


वहॉं भी नहीं उतर पाती है


खेल नहीं पाते हम वहॉं भी


सुख-सुविधाओं की कोई पारी


पीछा नहीं छोड़ती स्वप्न में भी


भूख, ग़रीबी, बेबसी और लाचारी

Tuesday, June 15, 2010

विकल्प

जैसे ही उसे यह खबर मिली कि सरकार ने बाल श्रम पर रोक लगा दी है और अब वह ऐसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर विषेश ध्यान देगी, तो उसका चेहरा खिल उठा। वह बीड़ियों का बंडल फर्ष पर ही छोड़कर कंपनी से भाग खड़ा हुआ। घर पहुंचकर जब उसने अपनी विधवा और विकलांग मॉं को यह खबर सुनाई तो एक पल तो वह भी खुषी से फूली नही समाई पर अगले ही पल उसका चेहरा मुरझा गया। जब बेटे ने मॉं से उसके मायूस होने का कारण पूछा तो वह कुछ सकुचाते हुए बोली, ‘बेटे! जब सरकार तुझसे काम छुड़वाकर तुझे स्कूल भेज देगी तो फिर हमारे पेट की आग कौन बुझाएगा?’ कुछ देर तक झोंपड़ी में खामोषी छाई रही। फिर अचानक मॉं खुद ही बोली,‘बेटेे कोई बात नहीं, मैं कोई काम तो कर नहीं सकती पर तुम स्कूल जाते समय मुझेे षंकर जी के मंदिर के बाहर बैठाल दिया करना। वहॉं दिन भर में कुछ न कुछ भीख तो मिल ही जाया करेगी। कम से कम घर का खर्च तो थोडा़-बहुत चल ही जाएगा।’ नहीं मॉं, ‘मेरे जीते जी तू क्यों भीख मांगेगी। पढ़ाई-लिखाई का क्या, पहले तो हमें अपना पेट ही भरना है अतः मैं खुद ही मंदिर पर जाकर बैठ जाया करूंगा। वैसे भी भीख मांगना तो बाल श्रम में आता भी नहीं है।’ और फिर इसके साथ ही वह मंदिर जाने की तैयारी में लग गया।